मथुरा और कामवन के बीच, गोवर्धन पर्वत पर स्थित दान घाटी (Daan Ghati Mandir) के इस पवित्र मंदिर में पीठासीन देवता के रूप में चट्टान की पूजा की जाती है। इस मंदिर की प्रसिद्धि न केवल भारत में, बल्कि विश्वभर में फैली हुई है। कुसुम सरोवर से केवल 2.5 KM दूर स्थित इस मंदिर में प्रतिदिन हजारों श्रद्धालु भगवान कृष्ण और गोवर्धन पर्वत की पूजा करने आते हैं। यह मंदिर अपने ऐतिहासिक, धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व के लिए जाना जाता है। जिसके बारे में माना जाता है कि, यह हर साल कुछ मिलीमीटर मिट्टी में बदल जाता है। तो आइए इस दिव्य मंदिर के बारे में कुछ और रोचक बातें जानते हैं।
दर्शन का समय – प्रात: 7:00AM से सायं 7:00 PM तक
वास्तुकला – Architecture
दानघाटी गोवर्धन मंदिर की वास्तुकला अद्वितीय और विशिष्ट है, जो इसे अन्य मंदिरों से अलग बनाती है। जो हिन्दू वास्तुकला और क्लासिक हिन्दू स्थापत्य शैली का बेजोड़ उदाहरण है। मंदिर के मुख्य प्रवेश द्वार में खंभों का प्रयोग किया गया है। जिसके ऊपर गोवर्धनधारी श्री कृष्ण की मूर्ति के साथ-साथ, अन्य गोप-गोपियों की भी मूर्तियाँ भी मौजूद हैं। ये मूर्तियाँ मंदिर की धार्मिक आभा को और बढ़ाती हैं।
मंदिर के अंदरूनी भाग को देखने पर आपको प्राचीन भारतीय वास्तुकला का उत्कृष्ट उदाहरण मिलेगा। मंदिर में पत्थरों से बने स्तंभों और दीवारों पर बारीक नक्काशी की गई है, जिसमें भगवान श्री कृष्ण के जीवन से जुड़ी विभिन्न कथाओं का चित्रण किया गया है। मंदिर की दीवारों और छतों पर रंग-बिरंगे चित्र और मूर्तियाँ भी देखी जा सकती हैं, जो श्रद्धालुओं को श्रीकृष्ण की लीलाओं का स्मरण कराती हैं।
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मंदिर के गर्भगृह में गोवर्धन शिला की पूजा की जाती है, जिसे भगवान कृष्ण का ही स्वरूप माना जाता है। इस शिला को विशेष अवसर पर विशेष तरीके से सजाया जाता है, जिसमें फूलों और कपड़ों का भव्य प्रयोग किया जाता है। मंदिर के आंगन में एक विशाल प्रांगण है, जहाँ पर श्रद्धालु बैठकर ध्यान और प्रार्थना करते हैं। कुल मिलाकर गोवर्धन के दानघाटी मंदिर की वास्तुकला भक्तों के लिए एक आध्यात्मिक अनुभव का सृजन करती है।
इतिहास – Daan Ghati Mandir History
दानघाटी गोवर्धन मंदिर का इतिहास बहुत पुराना है और इसे भगवान श्रीकृष्ण के जीवन के प्रमुख घटनाओं से जोड़ा जाता है। यह माना जाता है कि द्वापर युग में भगवान कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को अपनी छोटी उंगली पर उठाकर वृंदावन के लोगों को इंद्रदेव के क्रोध से बचाया था। उसी पर्वत की पूजा के लिए इस मंदिर का निर्माण किया गया। मंदिर के निर्माण की तिथि के बारे में कोई स्पष्ट जानकारी नहीं है, लेकिन इसे प्राचीन काल से बताया जाता है। ऐतिहासिक रूप से, यह मंदिर मुगल काल में भी सुरक्षित रहा और इसने कई संघर्षों और आक्रमणों का सामना किया। समय-समय पर इस मंदिर का पुनर्निर्माण और विस्तार किया गया, जिससे इसकी मौजूदा संरचना का विकास हुआ।
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मंदिर के आसपास कई पौराणिक कथाएँ और लोककथाएँ भी प्रचलित हैं, जो इसे एक रहस्यमयी और पवित्र स्थल बनाती हैं। ऐसा माना जाता है कि द्वापरयुग में इस घाटी को पार करने के लिए टोल टैक्स’ यानि दान दिया जाता था। कृष्णलीला के समय श्री कृष्ण ने स्वयं दानी बनकर, इस घाटी पर गोपियों से नोक–झोंक के साथ दानलीला की थी। दानकेलि-कौमुदी तथा दानकेलि- चिन्तामणि आदि गौड़ीय गोस्वामियों के ग्रन्थों में इस लीला का वर्णन मिलता है । श्री कृष्ण की इसी दान लीला के बाद, इस घाटी का नाम दानघाटी पड़ा। जिस घटी को पार करने के लिए आज भी टोल टैक्स देना पड़ता है।