Krishna Tuladan Katha: जब रानी ने किया अपने पति श्री कृष्ण का दान

Krishna Tuladan Katha

श्री कृष्ण तुलादान (Krishna Tuladan) हिंदू धर्म में एक महत्वपूर्ण घटना है, जो भगवान श्री कृष्ण के जीवन की दिव्यता और धर्म के प्रति उनकी गहरी निष्ठा को दर्शाती है। तुलादान शब्द दो भागों में विभाजित है ‘तुला’ जिसका अर्थ है तराजू और ‘दान’ जिसका अर्थ है दान। यह एक ऐसा अनुष्ठान है, जिसमें किसी व्यक्ति या वस्तु का भार तुला में रखा जाता है और उसके समकक्ष सोना, चांदी, रत्न या अन्य मूल्यवान वस्तुओं को दान किया जाता है।

श्री कृष्ण तुलादान की कथा भागवत पुराण, हरिवंश पुराण और अन्य धर्मग्रंथों में वर्णित है। इस कथा का मुख्य उद्देश्य यह दिखाना है कि भगवान की कृपा और सच्ची भक्ति के सामने धन, संपत्ति और भौतिक वस्तुएं नगण्य हैं।

क्यों किया गया कृष्ण का तुलादान ?

Krishna Tuladan Katha

श्री कृष्ण तुलादान की कथा भगवान श्रीकृष्ण की रानी सत्यभामा से जुड़ी है, जिन्होंने अपने अहंकार के कारण भगवान का तुलादान करने का प्रयास किया। कथा के अनुसार अपनी द्वारका नगरी में रानी सत्यभामा ने अपने पति, भगवान श्रीकृष्ण के प्रेम को पाने और श्री कृष्ण की सबसे प्रिय रानी बनने के लिए एक अनुष्ठान करने का निर्णय लिया | यह अनुष्ठान, अपनी सबसे प्रिय वस्तु का त्याग करने के बाद ही आरम्भ होता है | नारद मुनि, रानी सत्यभामा से ऐसी वस्तु का त्याग करने को कहते हैं, तो रानी कहती हैं की मझे संसार में सबसे प्रिय स्वयं श्री कृष्ण ही हैं | तो रीत के अनुसार रानी ने श्री कृष्ण को ही त्याग करने का फैसला लिया | किन्तु इसके पश्चात रानी अपने फैसले पर बहुत पछताती है और श्री कृष्ण को नारद मुनि से वापस मांगती हैं |

इस अनुष्ठान के दौरान उन्होंने सीखा कि भगवान के प्रति भक्ति और समर्पण भौतिक संपत्ति से अधिक मूल्यवान है। तुलादान की यह घटना न केवल धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है बल्कि यह नैतिकता, अहंकार त्याग और भक्ति के महत्व पर भी प्रकाश डालती है। यह कथा हमें सिखाती है कि भौतिक धन से अधिक महत्वपूर्ण भगवान की कृपा है।

कृष्ण तुलादान कथा

Krishna Tuladan Katha

श्रीकृष्ण तुलादान की कथा की शुरुआत भगवान श्रीकृष्ण, सत्यभामा और नारद मुनि के बीच के संवाद से होती है| दान किये हुए श्री कृष्ण को रानी जब नारद मुनि से वापस मांगती हैं तो वे रीत के अनुसार तुलादान का सुझाव देते हैं | मतलब श्री कृष्ण के भार के बराबर की वास्तु, धन या रत्न अगर दान किये जाएँ, तभी रानी श्री कृष्ण को वापस पा सकती हैं |

सत्यभामा, जो भगवान श्रीकृष्ण की अत्यंत सुंदर और धनवान रानी थीं, उन्हें अपने रूप और धन पर अत्यधिक घमंड था। सत्यभामा को यह चुनौती पसंद आई और उन्होंने इसे स्वीकार कर लिया।

सत्यभामा का उद्देश्य था कि अपने अपार धन से श्रीकृष्ण के प्रति अपना प्रेम और समर्पण दिखाया जाए। उन्होंने अपने सेवकों को बुलाकर बड़ी मात्रा में सोना, रत्न और अन्य बहुमूल्य वस्तुएं एकत्रित करने का आदेश दिया। अनुष्ठान आरंभ हुआ, भगवान श्रीकृष्ण को तुला में बैठाया गया। सत्यभामा ने अपनी संपत्ति तुला के दूसरे पलड़े में रखना शुरू किया, लेकिन श्री कृष्ण की लीला के कारण तुला के दोनों पलड़े बराबर नहीं हो सके। सत्यभामा ने अधिक सोना और रत्न तुला में डलवाए, लेकिन फिर भी वह भगवान के भार के बराबर नहीं हो सके। यह सत्यभामा के अहंकार को चुनौती देने वाला क्षण था।

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रुक्मिणी का प्रवेश और भक्ति का प्रभाव

सत्यभामा जब अपनी सारी संपत्ति तुला में रखने के बाद भी भगवान श्रीकृष्ण के भार के बराबर पलड़े को नहीं कर पाईं, तो उन्होंने अन्य लोगों से सहायता मांगी। इस दौरान भगवान श्रीकृष्ण की पहली रानी रुक्मिणी ने इस समस्या का समाधान किया। रुक्मिणी ने सत्यभामा को समझाया कि भगवान श्रीकृष्ण भौतिक संपत्ति से नहीं तौले जा सकते। तब देवी सत्यभामा ने अपनी पूरी भक्ति, श्रधा और समर्पण के साथ एक तुलसी का पत्ता तुला में डाला |

जैसे ही तुलसी का पत्ता तुला पर रखा गया, भगवान का पलड़ा उठ गया और संतुलन स्थापित हो गया। और इस प्रकार से देवी सत्यभामा ने अपनी पति और भगवान श्री कृष्ण को पुन: प्राप्त किया | यह दृश्य सत्यभामा और वहां उपस्थित सभी लोगों के लिए एक अद्वितीय शिक्षा थी। आप कृष्ण की तुलादान लीला कथा इस विडियो में भी देख सकते हैं |

श्री कृष्ण तुलादान का आध्यात्मिक महत्व

देवी रुक्मिणी का यह कार्य दर्शाता है कि भक्ति और समर्पण से बड़ी कोई वस्तु नहीं है। भगवान केवल प्रेम, श्रद्धा और समर्पण से संतुष्ट होते हैं। यह कथा न केवल सत्यभामा के अहंकार को समाप्त करती है, बल्कि यह भी दिखाती है कि सच्ची भक्ति के सामने भौतिक संपत्ति का कोई मूल्य नहीं होता।

यह कथा यह भी दिखाती है कि अहंकार और माया से मुक्ति पाने के लिए भक्ति मार्ग सबसे श्रेष्ठ है। सत्यभामा ने अपने अहंकार को त्यागकर रुक्मिणी और तुलसी के माध्यम से यह सीखा कि ईश्वर की कृपा केवल प्रेम और सच्चे समर्पण से प्राप्त होती है।

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समाज पर प्रभाव और शिक्षा 

Krishna Tuladan Katha

श्रीकृष्ण तुलादान का प्रभाव आज भी भारतीय समाज और धार्मिक परंपराओं में देखा जा सकता है। यह कथा हमें सिखाती है कि भक्ति और समर्पण जीवन की सबसे बड़ी संपत्ति हैं। तुलादान की परंपरा भारत के कई मंदिरों में आज भी प्रचलित है, जहां भक्त अपने वजन के बराबर दान करते हैं। यह दान धन, अन्न, वस्त्र, या अन्य आवश्यक वस्तुओं के रूप में किया जाता है। इसका उद्देश्य समाज में जरूरतमंदों की सहायता करना और धर्म के प्रति निष्ठा व्यक्त करना होता है।

यह कथा केवल धार्मिक महत्व तक सीमित नहीं है, बल्कि यह नैतिकता और जीवन के उच्च मूल्यों को भी उजागर करती है। यह हमें सिखाती है कि सच्ची सफलता भौतिक संपत्ति में नहीं, बल्कि सच्चे प्रेम, भक्ति और ईश्वर के प्रति समर्पण में है। श्रीकृष्ण तुलादान न केवल एक पौराणिक कथा है, बल्कि यह मानवता के लिए एक मार्गदर्शक सिद्धांत भी है।

क्या आप जानते हैं की जिस स्थान पर भगवान श्री कृष्ण का द्वारका महल था, उसी स्थान पर आज 5000 वर्ष पुराना द्वारकाधीश मंदिर है जहां पर श्री कृष्ण के द्वारकाधीश रूप की पूजा की जाती है |